एक मूक क्रांति कक्षाओं में आकार ले रही है। छात्र अब लंबे समय तक इंटरनेट की मदद से उत्तर नहीं देंगे, बल्कि वे अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई, यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता) का सहारा लेने लगे हैं। वे चैटजीपीटी की मदद से निबंध लिख रहे हैं, संवाद करके गणित के सवाल हल कर रहे हैं, यहां तक कि एआई का उपयोग अपने शिक्षकों के साथ चर्चा करने में भी कर रहे हैं। ऐसा अब कमोबेश दुनिया भर की कक्षाओं में होने लगा है। बावजूद इसके शैक्षणिक संस्थानों में डर का माहौल है। वे एआई टूल पर प्रतिबंध लगा रहे हैं।
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यह एक मौलिक गलतफहमी है। मौजूदा मॉडल को अप्रासंगिक बनाने वाली हर तकनीक का शिक्षा के क्षेत्र में पहले विरोध हुआ और बाद में उसे स्वीकार किया गया है। कैलकुलेटर की ही भरपूर आलोचना की गई थी। इंटरनेट को लेकर भी आशंकाएं जताई गई थीं। एआई भी इसी रास्ते पर है, लेकिन उसकी गति तेज है और पैमाना गहरा। जो चीज इसे अन्य प्रौद्योगिकी से अलग बनाती है, वह यह कि इससे सिर्फ छात्रों के सीखने का तरीका नहीं बदलने वाला, बल्कि यह सीखने का मतलब ही बदल देगा। भारत की शिक्षा प्रणाली, जो अंग्रेजों द्वारा आज्ञाकारी क्लर्क पैदा करने के लिए बनाई गई थी, आज भी रटने, भारी पाठ्यक्रम व मानकीकृत परीक्षाओं पर आधारित है। यह व्यवस्था एआई-संचालित दुनिया की जरूरतों के साथ तालमेल नहीं बिठा सकती। लिहाजा, हमें व्यवस्था में बदलाव कर उसमें नयापन लाना होगा।
भारत के पास ऐसा करने की बुनियाद तैयार है। सदियों तक, यहां गुरु-शिष्य की परंपरा के तहत ज्ञान का प्रसार होता रहा है। यह ऐसी व्यवस्था थी, जो विश्वास, गुरुओं के मार्गदर्शन, जांच-पड़ताल और आत्म-खोज पर खड़ी थी। शिक्षक केवल ज्ञान नहीं बांटते, बल्कि आत्मा को शुद्ध किया करते थे। नालंदा और तक्षशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों में भी आपसी चर्चा, संवाद और गहरे ज्ञान पर जोर दिया जाता। लिहाजा, एआई का अगर बुद्धिमानी से इस्तेमाल किया जाता है, तो यह एक नए तरीके का शिक्षक बन सकता है, जो हर बच्चे पर ध्यान देने वाला आभासी मार्गदर्शक बन सकेगा। जो छात्र समझते हैं कि एआई के साथ कैसे काम करना है या जो जानते हैं कि कैसे इसके द्वारा दी गई जानकारी को सत्यापित करना व विस्तार देना है, वे अपनी पीढ़ी के सबसे प्रभावी विचारक व समस्या-समाधानकर्ता साबित होंगे। जो ऐसा नहीं कर सकेंगे, वे पीछे रह जाएंगे। एआई शिक्षक आज छात्रों की उलझन का पता लगा सकते हैं और उसे सही समय में सुलझा सकते हैं। संवर्धित रियलिटी प्लेटफॉर्म स्मार्टफोन के जरिये इमर्सिव लैब अनुभव मुहैया करा रहे हैं, यानी छात्र जल्द ही अल्बर्ट आइंस्टीन, महात्मा गांधी या रानी लक्ष्मीबाई के अवतारों के साथ होंगे, जो उनके बारे में पढ़कर नहीं, बल्कि उनके साथ बातचीत करके इतिहास का ज्ञान हासिल करेंगे।
एआई शिक्षकों की जगह नहीं लेता, बल्कि यह उनके पेशे को बेहतर बनाता है। महान शिक्षक मशीनों द्वारा किनारे नहीं किए जाएंगे, बल्कि इनके इस्तेमाल द्वारा उन्हें और सशक्त बनाया जाएगा। एक ही पाठ की ग्रेडिंग करने या दोहराने में समय बिताने के बजाय, वे मार्गदर्शन करने, प्रेरित करने व छात्रों को बेहतर सवाल पूछने में मदद करने पर ध्यान लगा सकेंगे। मशीनें दिनचर्या के काम संभालेंगी और इंसान छात्रों का बेहतर मार्गदर्शन करेंगे। मगर इस बदलाव को साकार करने के लिए मानसिकता बदलने की जरूरत होगी। आज सीखने का बेहतर रास्ता यही है कि कोई छात्र कितनी अच्छी तरह से प्रौद्योगिकी को अपनाता है, उसका किस कदर मूल्यांकन करता है और आखिरी परिणाम में अपनी मूल अंतर्दृष्टि को शामिल कर पाता है।
अगर भारत अपने बच्चों को एआई में प्रवीण बना ले, तो इन उपकरणों से डरने के बजाय इनमें महारत हासिल करने के लिए एक निर्णायक बढ़त हासिल की जा सकती है। ऐसा न सिर्फ शिक्षा में, बल्कि उद्यमिता, अनुसंधान, शासन और वैश्विक प्रभाव बनाने में भी किया जा सकता है। हमें परंपरा और प्रौद्योगिकी के बीच चयन नहीं करना है, बल्कि हमें प्राचीन ज्ञान को भविष्य की सोच के साथ जोड़ देना है। यह हम कर सकते हैं, क्योंकि इसमें हमने हमेशा अच्छा किया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
विवेक वाधवा