नई दिल्ली : वर्ष 2021 की लंबित
जनगणना शुरू करने से पहले सरकार के सामने जातिवार गणना की गुत्थी सुलझाने की सबसे बड़ी चुनौती होगी। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों के साथ-साथ जदयू जैसे अहम सहयोगी दल भी जातिवार गणना की मांग कर रहे हैं। भाजपा ने साफ किया है कि वह जातिवार गणना के खिलाफ नहीं है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि जातिवार गणना कैसे कराई जाए। 2011 में संप्रग की मनमोहन सरकार द्वारा कराई गई जातिवार गणना के अनुभव अच्छे नहीं हैं। ऐसे में रास्ता सुझाने के लिए सरकार इस मुद्दे पर विपक्ष समेत सभी दलों संपर्क कर सकती है। इसमें एक सुझाव सर्वदलीय समिति गठित करने का भी आ रहा है।
2011 की जनगणना के दौरान सामाजिक, आर्थिक और जातिवार गणना के आंकड़े जुटाने के लिए लोगों को जाति बताने का अवसर दिया गया था। 2011 में 46.80 लाख से अधिक जातियां थीं, जबकि 1931 की जनगणना में सिर्फ 4,147 जातियां दर्ज की गई थीं। इतनी बड़ी संख्या में जातियों में से ओबीसी जातियों का ढूंढना संभव नहीं था। पहले मनमोहन
सिंह सरकार और बाद में मोदी सरकार ने जातिवार गणना के इन आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं करने का फैसला किया गया। जाहिर है नए सिरे से जातिवार गणना कराने की स्थिति में ओबीसी जातियों की स्पष्ट पहचान का फार्मूला निकालना जरूरी है।
इस विसंगति को दूर करने के लिए एक विकल्प के रूप में लोगों को खुद अपनी जाति जनगणना के दौरान बताने का मौका देने का तर्क दिया जा रहा है। ओबीसी में आना किसी व्यक्ति को कई सरकारी लाभों का हकदार बना देता है। ऐसे में हर व्यक्ति खुद को ओबीसी बताने की कोशिश करेगा। जाहिर है इससे नई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि जातिवार गणना कराना बहुत मुश्किल है। जातिवार गणना की मांग करने वाले नेताओं और दलों को इसका रास्ता सुझाने की जिम्मेदारी सौंपना बेहतर होगा।
जातियों की पहचान का कोई सटीक फार्मूला नहीं
पूरे देश में जातियों की अलग-अलग पहचान के लिए कोई भी फार्मूला सटीक नहीं है। जातियों की पहचान के लिए सरनेम को सबसे बेहतर तरीका माना जाता है। समस्या यह है कि कई लोगों ने अपना सरनेम अपने गांव के नाम पर रख लिया है। जैसे अकाली दल नेता सुखबीर सिंह बादल या भाजपा नेता पुरुषोत्तम रूपाला। सुखबीर सिंह जट सिख हैं और बादल
उनके गांव का नाम है। पुरुषोत्तम कड़वा पटेल हैं और रूपाला उनके गांव का नाम है। बिहार और उत्तर प्रदेश की भूमिहार जाति के लोग सिंह, शर्मा, मिश्र, सिन्हा समेत कई सरनेम लगाते हैं। 2011 में सिर्फ महाराष्ट्र में 10 करोड़ लोगों में से 1.10 करोड़ यानी 11 प्रतिशत लोगों ने अपनी कोई जाति नहीं बताई थी। इनमें बड़ी संख्या में ओबीसी के लोग हो सकते हैं।