छात्रों के विदेश जाने का बढ़ता चलन

 

पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या में भारी वृद्धि से देश को प्रतिभा और पैसा दोनों का नुकसान हो रहा है



उच्च शिक्षा के लिए भारतीय छात्रों के विदेश जाने का चलन दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। विदेश मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2019 में लगभग सात लाख, 2022 में नौ लाख छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए थे, वहीं 2024 में अब तक लगभग 13.50 लाख छात्रों ने पढ़ाई के लिए विदेश का रुख किया है। इनमें से करीब 4.50 लाख छात्र कनाडा, 3.50 लाख छात्र अमेरिका और 1.85 लाख छात्र ब्रिटेन गए हैं। पढ़ाई के लिए आस्ट्रेलिया, जर्मनी, चीन, सिंगापुर, न्यूजीलैंड, जार्जिया, यूक्रेन, फिलीपींस आदि देशों में जाने वाले छात्रों की संख्या भी अच्छी-खासी है। लगभग 108 देशों में भारतीय छात्र अभी अध्ययनरत हैं। पिछली सदी के आठवें नौवें दशक तक माना जाता था कि प्रतिभा पलायन सामाजिक सरोकारों एवं राष्ट्रीय हितों को बाधित करता है। फिर उदारीकरण के दौर में यह माना जाने लगा कि विदेश में पढ़ने, नौकरी करने आदि से देश के विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है, परंतु अब विदेश में पढ़ाई पर व्यय किए जाने वाले धन और वहां नौकरी करने वाले भारतीय छात्रों की ओर से भेजी जाने वाली राशि का अंतर कम होता जा रहा है। पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या में वृद्धि से देश को प्रतिभा और पैसा दोनों का नुकसान हो रहा है। यह स्थिति इसलिए भी चिंताजनक है कि इससे उद्योग-धंधों एवं संस्थानों के समक्ष सक्षम एवं कुशल श्रम शक्ति के अभाव की समस्या भी सामने आ सकती है।



आमतौर पर भारतीय छात्र आकर्षक नौकरियों, सुविधापूर्ण जीवनशैली, अनुकूल कार्यसंस्कृति और अंततः वहीं बस जाने की चाहत में विदेश का रुख करते हैं, परंतु बहुत से छात्र ऐसे भी हैं, जो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, शोध एवं अनुसंधान के बेहतर अवसर, मनचाहे एवं रोजगारपरक विषयों की उपलब्धता, उत्पादक एवं अनुशासित शैक्षिक परिवेश, विद्यार्थी-शिक्षक के संतुलित अनुपात, समय पर कोर्स पूरा होने की सुनिश्चितता आदि के कारण अध्ययन के लिए विदेश जाते हैं। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अधिकांश विद्यार्थियों को देश के उत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों में वांछित विषयों की पढ़ाई का अवसर नहीं मिल पाता। आज के युवा प्रयोगवादी हैं। वे ऐसे कोर्स चुन रहे हैं, जो उद्योगों के अनुरूप हों और जो बदलती तकनीक

के लिहाज से भी अद्यतन हों। आजकल छात्रों की रुचि एवं रुझान-खाद्य सुरक्षा, डिजिटल प्रौद्योगिकी, कंप्यूटर साइंस, साफ्टवेयर इंजीनियरिंग, व्यवसाय एवं प्रबंधन, अर्बन प्लानिंग, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विज्ञान, होटल प्रबंधन एवं पर्यटन, कला एवं ग्राफिक डिजाइन, जलवायु परिवर्तन, हरित ऊर्जा, डाटा साइंस, फिनटेक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, मशीन लर्निंग और पृथ्वी एवं पर्यावरण विज्ञान जैसे विषयों में अधिक है।


हालांकि भारतीय विश्वविद्यालयों में भी नए-नए कोर्स प्रारंभ किए जा रहे हैं, पर इसकी प्रक्रिया धीमी होने के साथ वे जड़ता के भी शिकार हैं। हमारे विश्वविद्यालयों में नीतिगत स्तर पर हुए बदलावों को धरातल तक लाने और उसके लिए अनुकूल तंत्र एवं संसाधन उपलब्ध कराने में बहुत समय लग जाता है। भारतीय शिक्षण संस्थानों में अत्यधिक प्रतिस्पर्धा, सीटों की कम संख्या, मांग एवं आपूर्ति का भयावह असंतुलन, शोध एवं अनुसंधान के सीमित अवसर, सक्षम एवं अनुभवी संकायों का अभाव, कोर्स एवं विषयों के चयन में लचीलेपन की कमी, जीवनोपयोगी एवं व्यावहारिक ज्ञान की तुलना में सैद्धांतिक एवं पुस्तकीय ज्ञान पर अत्यधिक बल, मौलिक, स्वतंत्र एवं आलोचनात्मक चिंतन- विश्लेषण के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया, उद्योग एवं शिक्षण-संस्थानों के बीच साझेदारी की कमी तथा आरक्षण की जटिल प्रक्रिया आदि कारक भी भारतीय छात्रों को विदेशी विश्वविद्यालयों की और पलायन करने को मजबूर करते हैं।


उच्च शिक्षा की जिन विशेषताओं के कारण प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में भारतीय छात्र दुनिया के दूसरे देशों की ओर पलायन कर रहे हैं, अच्छी बात यह है कि वही विशेषताएं यहीं उपलब्ध कराने के लिए सरकार के स्तर पर अनेक अहम कदम उठाए जा रहे हैं। उनके पसंद के कोर्स की पहचान कर देश में ही अब वैसी पढ़ाई की तैयारी है। हाल में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने सुधारात्मक कदम उठाते हुए स्नातक की पढ़ाई के साथ इंटर्नशिप को अनिवार्य किया है। इससे छात्रों को व्यावसायिक जगत का व्यावहारिक अनुभव प्राप्त होगा। इससे वे उद्योग जगत की मांग के अनुरूप अपने ज्ञान एवं कौशल को विकसित कर सकेंगे। राष्ट्रीय क्रेडिट फ्रेमवर्क को भी छात्रों की योग्यता को मापने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल माना जा रहा है। इसके अंतर्गत 30 घंटे की पढ़ाई के लिए छात्रों को एक अंक दिया जाएगा। यह फ्रेमवर्क उन्हें विभिन्न क्षेत्रों में अपने ज्ञान एवं कौशल को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करेगा। यूजीसी विनियमन-2024 भी भारतीय शिक्षा प्रणाली में बड़े बदलावों को प्रस्तावित करता। है, जिसका उद्देश्य इसे अधिक लचीला, समावेशी और वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाना है। प्रस्तावित सुधारों में स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रमों में द्विवार्षिक प्रवेश प्रक्रिया, पिछली शैक्षणिक स्ट्रीम की परवाह किए बिना किसी भी पाठ्यक्रम को चुनने की स्वतंत्रता, बहुविषयक शिक्षण, एक साथ दो डिग्री हासिल करने, जमा किए गए क्रेडिट के आधार पर प्रमाणपत्र, डिप्लोमा या डिग्री प्राप्त करने तथा पूर्व शिक्षा एवं कौशल पर आधारित ज्ञान अर्जित करने आदि के अवसर एवं विकल्प सम्मिलित हैं। ये सभी बदलाव स्वागतयोग्य हैं, जो रटने एवं परीक्षा केंद्रित शिक्षण प्रणाली की तुलना में रचनात्मक, व्यावहारिक एवं कौशल आधारित ज्ञान को प्रोत्साहित करते हैं।


(लेखक शिक्षाविद् एवं सामाजिक संस्था 'शिक्षा सोपान' के संस्थापक हैं)

response@jagran.com