बच्चों के पैंक्रियाज को जख्मी कर रहा बाजार का खानपान

 

लखनऊ। बाजार का खानपान और मोटापा बच्चों के पैंक्रियाज में सूजन और जख्म दे रहा है। बड़ी संख्या में बच्चे एक्यूट और क्रॉनिक पैंक्रियाटाइटिस की चपेट में आ रहे हैं। इससे पेट में असहनीय दर्द और उल्टियां होने से ये खाना नहीं खा पाते और डायबिटीज के साथ ही कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। इससे लंबाई व अन्य विकास प्रभावित हो रहा है।


यह तथ्य पीडियाट्रिक गैस्ट्रोइंट्रोलोजी विभाग की ओपीडी के अध्ययन में सामने आए हैं। देश के पहले पीडियाट्रिक गैस्ट्रोइंट्रोलोजी विभाग की ओपीडी में एक साल में यूपी, बिहार समेत दूसरे प्रदेशों के पैंक्रियाटाइटिस के करीब 300 बच्चे आए हैं। इनकी उम्र पांच से 18 वर्ष के बीच है। पीजीआई के पीडियाट्रिक गैस्ट्रोइंट्रोलोजी विभाग के डॉ. मोनइन सेन शर्मा ने बताया कि एक्यूट पैंक्रियाटाइटिस पीड़ित बच्चों के पैंक्रियाज में पहले सूजन आती है। शुरुआत में उपचार से यह तीन से छह महीने में ठीक हो सकता है। पैंक्रियाज में लम्बे समय तक सूजन, नली में रुकावट, खाना पचाने वाले पाचन एंजाइम पैंक्रियाज को ही नुकसान पहुंचाने लगता है। इससे पैंक्रियाज में जख्म और पस बन जाता है। यह पस पैंक्रियाज को क्षति पहुंचाने के साथ लिवर, गुर्दा, दिल और दिमाग समेत दूसरे अंगों में फैल जाता है। उपचार न मिलने पर यह जानलेवा हो सकता है।


● घर का बना सामान्य खाना खाएं

● तला भुना व जंक फूड न खाएं

● बाजार की पैकेट बंद चीजों से दूरी बनाएं

● तेल व मसाला का खाएं



जीवन शैली जिम्मेदार

डॉ. सेन शर्मा का कहना है कि बच्चों में पैंक्रियाज की समस्या तेजी से बढ़ रही है। पांच वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों में इसका मुख्य कारण बदला हुआ खानपान, जीवन शैली और पर्यावरण है। बाजार की चीजें खाने से बच्चों में मोटापा बढ़ रहा है।


असहनीय दर्द-उल्टियां

डॉ. मोइनक का कहना है कि क्रॉनिक पैंक्रियाटाइटिस वाले बच्चों के पेट में बार-बार असहनीय दर्द और उल्टियां होती हैं। इससे ये कुछ खा नहीं पाते हैं और तरल पदार्थ का सेवन करने को मजबूर हो जाते हैं। इसस कुपोषण फैलता है। इनकी लम्बाई, वजन, मानसिक और शारीरिक विकास सामान्य बच्चों के मुकाबले कम होता है।


पीजीआई ने शुरू की विशेष ओपीडी

उन्होंने बताया कि पैंक्रियाटाइटिस के पीड़ितों की संख्या बढ़ने पर विभाग ने विशेष ओपीडी शुरू की है। महीने में एक दिन सिर्फ पैंक्रियाटाइटिस के बच्चे देखे जाते हैं। एक दशक पहले इससे पीड़ित महीने में दो से तीन बच्चे आते थे, लेकिन अब यह संख्या औसतन 30 होती है। इनमें 80 फीसदी बच्चे एक्यूट पैंक्रियाटाइटिस के होते हैं। 20 फीसदी बच्चे क्रॉनिक पैंक्रियाटाइटिस के होते हैं। इन्हें बार-बार अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत पड़ती है। इनका उपचार लम्बा चलता है।