प्रोफेसरों की प्रोन्नति की राह में वेतन बाधा



लखनऊ। विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों को अन्य प्रमुख संस्थानों की अहम जिम्मेदारियां संभालने में उनका वेतन आड़े आ रहा है। कुलपति पद के साथ ही उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग, उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा चयन आयोग और उत्तर प्रदेश अधीनस्थ सेवा चयन आयोग में सदस्य और अध्यक्ष के पद का नियत वेतन प्रोफेसर के वेतन से कम है। वेतन संरक्षण का प्रावधान न होने से कई प्रोफेसर अपने कदम रोक ले रहे हैं।


यह मुद्दा एक बार फिर तब गरम हो गया, जब दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय की कला संकायाध्यक्ष प्रो. कीर्ति पांडेय को उत्तर प्रदेश शिक्षा सेवा चयन आयोग प्रयागराज का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।


इस पद पर कार्य करते हुए वेतन मद में उन्हें प्रतिमाह एक लाख रुपये से अधिक की आर्थिक क्षति होगी। आयोग में अध्यक्ष के पद का नियत वेतन 1.75 लाख रुपये प्रतिमाह है। इसमें जो भत्ते व सुविधाएं हैं, उन्हें जोड़कर भी भरपाई संभव नहीं है। इसी तरह सदस्य का नियत वेतन 1.47 लाख रुपये है। ऐसे में 10 साल की वरिष्ठता वाले किसी प्रोफेसर को इस पद का कार्यभार ग्रहण करने में लगभग एक लाख रुपये प्रतिमाह की आर्थिक क्षति होगी। प्रोफेसर का मूल वेतन 1,44,200 रुपये है, जबकि सुपर टाइम स्केल में उसका मूल वेतन 2,24,100 रुपये हो जाता है। मोटे तौर पर एक प्रोफेसर का वेतन प्रतिमाह दो लाख रुपये से लेकर 3.25 लाख रुपये तक जाता है।

इसी तरह कुलपति पद का नियत वेतन भी 2.10 लाख रुपये प्रतिमाह है। भत्ते और सुविधाएं अलग से हैं।



आयोगों में जाने से परहेज करते हैं कुछ प्रोफेसर

केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कुलपति को 2.10 लाख रुपये प्रतिमाह नियत वेतन के अलावा 11250 रुपये विशेष भत्ता समेत अन्य भत्ते मिलते हैं। वेतन संरक्षण का प्रावधान न होने से विश्वविद्यालयों के कुछ प्रोफेसर आयोगों में जाने से परहेज करते हैं। पिछले दिनों एक प्रोफेसर ने लोक सेवा आयोग में सदस्य के पद पर नियुक्ति होने के बाद भी कार्यभार ग्रहण नहीं किया था। अभी हाल ही में एक प्रोफेसर ने शिक्षा सेवा चयन आयोग में अध्यक्ष पद के लिए साक्षात्कार में हिस्सा नहीं लिया। उनका कहना है कि चयन होने के बाद उन्हें कम वेतन पर काम करना पड़ेगा। उच्च शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव एमपी अग्रवाल का कहना है कि आयोग में नियुक्त अध्यक्ष या सदस्य के लिए वेतन संरक्षण का प्रावधान नहीं है।