राष्ट्रीय पेंशन प्रणाली (एनपीएस) का बचाव बनाम पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) की मांग को लेकर सियासी तलवार खींची हुई है, जिसका श्रेय हालिया विधानसभा चुनावों को जाता है। ओपीएस के वादे के लिए जिसे जिम्मेदार माना जा रहा है, वह है 2022 में हिमाचल प्रदेश चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत। नई सरकार ने कार्यभार संभालने के तुरंत बाद अपना यह वादा पूरा किया। मगर कांग्रेस को मिली उस जीत का एकमात्र श्रेय ओपीएस को देना सही नहीं है।
गौर करने की बात है, नई पेंशन योजना की शुरुआत 1 जनवरी, 2004 को हुई थी, तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार सत्ता में थी। क्या नई पेंशन योजना के कारण ही उस आम चुनाव में राजग को हार मिली थी? मैं ऐसा नहीं मानता, क्योंकि चुनावी नतीजे भावनात्मक मुद्दों से कहीं अधिक प्रभावित होते हैं। अभी पुरानी पेंशन को ‘जन-समर्थक’ और नई पेंशन को ‘जन-विरोधी’ बताकर जनता का मूड बदलने का प्रयास हो रहा है। पुरानी पेंशन की वापसी होती है, तो यह राजकोष पर भारी पड़ेगा। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं कि नई पेंशन को लेकर जो मसले सामने आए हैं, उनसे निपटने के लिए योजना में बदलाव न किए जाएं, या राजनीतिक हल के रूप में पुरानी और नई पेंशन की मिली-जुली व्यवस्था लागू न की जाए।
हालांकि, आंध्र प्रदेश सरकार ने पुरानी पेंशन योजना का मूल्यांकन किया है, जिससे पता चलता है कि केवल सात वर्षों में राज्य का सारा राजस्व वेतन और पेंशन में खत्म हो जाएगा। यह गणना कमोबेश सभी राज्यों पर लागू होती है। 1990-91 में पेंशन पर अपनी हिस्सेदारी के रूप में राज्यों को अपने राजस्व का 7.9 प्रतिशत हिस्सा खर्च करना पड़ता था, जो 2020-21 में बढ़कर 27.4 प्रतिशत हो गया। जबकि, पुरानी और नई, दोनों पेंशन योजनाएं देश के कुल श्रम-बल की बमुश्किल 3.2 प्रतिशत आबादी को लाभ पहुंचाती हैं, मगर सामूहिकता में सरकारी राजस्व पर 18 फीसदी का बोझ डालती हैं। वैसे, विकसित देशों में सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान कमोबेश सभी पर समान लागू है और उस पर सरकारों को बहुत कम राजस्व खर्च करना पड़ता है। अमेरिका में 65 वर्ष से अधिक उम्र का हर व्यक्ति बुनियादी पेंशन पाता है, मगर सरकारी सामाजिक सुरक्षा कोष में सभी कामकाजी लोगों से योगदान लिया जाता है। आकार के हिसाब से, सामाजिक सुरक्षा पर 15 फीसदी सरकारी राजस्व खर्च होता है, पर करीब 94 फीसदी कार्य-बल को इसका लाभ मिलता है। ब्रिटेन में करीब सभी को पेंशन का लाभ मिलता है, जबकि सरकारी राजस्व पर महज 12.6 प्रतिशत का बोझ पड़ता है। क्या ऐसा ही भारत में भी हो सकता है?
फिलहाल देश में मतदाताओं का एक विशाल बहुमत पुरानी पेंशन बनाम नई पेंशन से प्रभावित नहीं है, पर वह पेंशन संबंधी उग्र प्रचार अभियानों से प्रभावित हो सकता है। एक मिसाल हिमाचल प्रदेश है। हिमाचल प्रदेश की जनसांख्यिकी कुछ अलग है, जिसमें लगभग हर घर में कम से कम एक सदस्य सरकार या सशस्त्र बलों के लिए काम करता है। जाहिर है, यह समूह पुरानी पेंशन योजना की राजनीति को तरजीह देता है। फिर भी, चुनाव में जीत की एकमात्र वजह के रूप में इसकी भूमिका संदिग्ध है। कोई शक नहीं, पुरानी पेंशन चाहने वाले लाभार्थियों का छोटा, मगर मुखर और बहुत संगठित समूह बहुत सक्रिय है।
एक और पहलू है कि ऋण भुगतान अनुपात के आधार पर देखें, तो भारत प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अलग है। इसके जीडीपी में ऋण से जीडीपी अनुपात बहुत अधिक है, समग्र ऋण को देखें, तो इस पर सामाजिक सुरक्षा के कारण वस्तुत कोई बोझ नहीं है। यह कहना सही नहीं है कि हम लोगों को सड़क पर ले आएंगे। चूंकि देश में अधिक युवा पैदा होंगे, तो प्रति-व्यक्ति कर का बोझ भी कम होगा। आने वाले समय में भारतीयों की औसत उम्र तेजी से बढ़ेगी। अभी देश को सभी बुजुर्गों के लिए सामाजिक सुरक्षा के व्यापक न्यूनतम कवच के साथ एक पूर्ण वित्त पोषित पेंशन प्रणाली की जरूरत है। ऐसा करने के लिए पहले पुरानी पेंशन के विवाद से जल्दी उबरना पड़ेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)