बच्चों को स्कूलों में जो सीखना चाहिए, वह आखिर वे क्यों नहीं सीख पा रहे हैं? आइए, इसके लिए जिम्मेदार व्यवस्थागत कारणों का पता लगाएं। पहला कारण हमारी स्कूली शिक्षा-व्यवस्था की रूपरेखा से पैदा होता है। हमने कुछ दशक पहले एक विकल्प चुना था कि छोटे बच्चों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक बस्ती में एक किलोमीटर के भीतर एक प्राथमिक विद्यालय होना चाहिए। यह कोशिश वाकई काम आई और यह एक प्रमुख कारण रहा है कि उस आयु वर्ग के अधिकांश बच्चे अब प्राथमिक विद्यालयों में जा रहे हैं, लेकिन इसने कुछ मुश्किलें भी पैदा कर दी हैं।
हमारी शिक्षा प्रणाली की रूपरेखा व संस्कृति शिक्षा-व्यवस्था को लचीला और मजबूत बनाने के बजाय कठोर व केंद्रीकृत बनाती है।
चूंकि हर प्राथमिक विद्यालय एक बस्ती की सेवा करता है, इसलिए कक्षा एक से पांच तक के बच्चों की संख्या कम होती है। छोटे छात्र समूह के चलते स्कूल में अक्सर एक या शायद दो शिक्षक होते हैं। वे एक साथ पांच कक्षाएं पढ़ाते हैं और तीन विषय भी। इस शिक्षण से मुश्किलें कई गुना बढ़ जाती हैं। ऐसे स्कूलों के शिक्षक अलग-थलग पड़ जाते हैं और उनकी मदद करना भी कठिन होता है। समस्या का दूसरा कारण सार्वजनिक शिक्षा में अपर्याप्त निवेश से पैदा होता है, कहीं संसाधनों की कमी होती है, तो कहीं गुणवत्ता अच्छी नहीं होती।
शिक्षा पर हमें जितना खर्च करना चाहिए, उतना हम नहीं कर रहे हैं। दशकों से हम शिक्षा पर छह प्रतिशत खर्च करने की प्रतिबद्धता जताते रहे हैं, पर खर्च लगभग तीन प्रतिशत ही कर रहे हैं। खर्च में कमी कई समस्याओं को रेखांकित करती है। शिक्षकों की कमी, कुछ राज्यों में बड़ी संख्या में अल्पकालिक अनुबंध वाले, कम पारिश्रमिक वाले शिक्षक भी समस्या हैं। शिक्षकों की कमी की वजह से भी शिक्षा की पहुंच नहीं बन पा रही है। स्कूल की अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए स्टाफ की कमी भी आड़े आती है। स्कूलों में शौचालय, पानी और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी के साथ खराब रखरखाव की भी समस्या है। वर्षों से मध्याह्न भोजन में पोषण का स्तर खराब हो रहा है। इन तमाम कमियों की वजह से बच्चों का स्कूलों के साथ लगाव भी प्रभावित होता है।
तीसरा कारण है, हमारी खराब शिक्षक शिक्षा प्रणाली। हमारे पास दुनिया की सबसे खराब और सबसे भ्रष्ट शिक्षक शिक्षा प्रणाली है। असलियत यह है कि हमारे 90 लाख शिक्षकों में से अधिकांश ने बहुत खराब गुणवत्ता वाला बीएड या डीएड पूरा किया है। कई शिक्षण कॉलेज ऐसे भी हैं, जो सिर्फ डिग्री बेचते हैं, यहां तक कि छात्रों को कक्षाओं में जाने की जरूरत भी नहीं पड़ती है। न केवल बुनियादी शिक्षा पर, बल्कि शिक्षक शिक्षा-व्यवस्था सुधारने की दिशा में भी काम करना जरूरी है।
चौथा कारण है हमारी शिक्षा प्रणाली की रूपरेखा और संस्कृति, जो शिक्षा व्यवस्था को लचीला और मजबूत बनाने के बजाय कठोर व केंद्रीकृत बनाती है। ऐसी संस्कृति को बढ़ावा मिला है, जो शिक्षकों को बलि का बकरा मानती है और जो शिक्षकों के वास्तविक सामाजिक-मानवीय जुड़ाव से रहित है। ऐसे में, शिक्षक बड़े पैमाने पर असहाय, पदावनत और कमजोर हैं।
पांचवां कारण है व्यवस्था का प्रशासनिक नेतृत्व और प्रबंधन। व्यवस्था की रूपरेखा चाहे जैसी हो, नेतृत्व से फर्क काफी पड़ता है। कुछ राज्यों में अच्छे नेता फर्क पैदा कर देते हैं, लेकिन अनेक बार नेतृत्व घटिया होता है। ऐसे में, शिक्षकों से लगातार गैर-शैक्षणिक मांगें की जाती हैं, चुनाव डॺूटी से लेकर मलेरिया विरोधी अभियान तक; उनकी प्राथमिकताएं लगातार बदलती रहती हैं। गैर-शैक्षणिक कार्य उन्हें उनकी मुख्य भूमिका से भटकाते हैं। इसके अलावा, पाठॺपुस्तकों का विकास भी जरूरी है।
छठा कारण स्कूली शिक्षा में प्रमुख संस्थानों की लचर क्षमता है। हमारे पास ऐसे दूरदर्शी संस्थान होने चाहिए, जो महत्वपूर्ण शैक्षणिक मामलों में नेतृत्व व सहयोग करें। जैसे, पाठॺक्रमों, पाठॺपुस्तकों व मूल्यांकन प्रणाली का विकास आदि। हमारे पास ऐसे अहम संस्थान होने चाहिए, जो स्थानीय जरूरतों के अलावा देश के भी काम आएं। हालांकि, बहुत से ऐसे संस्थान आंतरिक और बाहरी राजनीति में उलझे हुए हैं। हमारे शैक्षणिक विचार और व्यवहार ऐसे हैं, जो हमें नीचे ले जा रहे हैं। भारत में सीखने या पढ़ाई पर जो संकट खड़ा हुआ है, उससे निपटने की न तो क्षमता दिखती है और न इच्छा। हमारे शिक्षकों-बच्चों को खुद अपनी देखभाल के लिए छोड़ दिया गया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)