मां शारदे की स्तुति करके चरणों में शीश झुकाता हूं।
मैं शिक्षक की पीड़ा के कुछ मार्मिक गीत सुनाता हूं।
मीजल्स रूबेला टीकाकरण हेतु घर घर दौड़ा जाता हूं।
टीकाकरण से कोई मना करें फौरन उसको समझाता हूं।
वृक्षारोपण की गिनती के लिए सब नलकूपों पर जाता हूं।
मोटर साइकिल पेट्रोल खाए मैं खाख छान कर आता हूं।
जंगलों में नलकूप लगे टीकड़ बबूलों से पाला है।
मैं अभागा शिक्षक हूं पैसे का निकलता रोज दिवाला है।
जियो टैगिंग समझाने को सब विद्यालय में जाना होता।
कभी शांति से रहता हूं कभी मजबूरी में आपा खोता।
कभी सिंचाई विभाग में दौड़ाया सभी वन विभाग में लगा दिया।
जब चाहा जैसा चाहा उल्टी-सीधी जगह मुझको भगा दिया।
यह सब काम में विद्यालय के अतिरिक्त समय में करता हूं।
यह पीड़ा मैं किससे बांटू बस अपनी मौतों मरता हूं।
यह समय भी गुजर जाएगा कभी तो आप शांति होगी।
परिवर्तन है प्रकृति का नियम निश्चित अब क्रांति होगी।
निरीक्षक कभी मुखातिब हो तो नियमावली समझाते हैं।
वह तीस वर्ष की सेवा बताएं उनतीस की हम भी बताते हैं।
यह जीवन है एक शिक्षक का सबकी सुननी होती है।
शिक्षक है एक निरीह प्राणी अंतरात्मा उसकी रोती है।
हां स्वर्ग मेरा है शिक्षण कक्ष एवं गौरव अध्यापन में।
उल्टा सीधा जो लिख डाला अब भला है समापन में।
दो शब्द बहुत कारगर है जो प्राप्त है वही पर्याप्त है।
इन्हीं शब्दों के साथ बीपी की अपनी बात समाप्त है।
- बी पी सिंह यादव, मैनपुरी