‘कागज पर विकास’ की मिसाल देखनी हो तो देश में प्राथमिक शिक्षा पर एक नजर डाली जा सकती है. ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट से पता चला है कि सभी राज्यों के लगभग 13 हजार से अधिक गांवों में स्कूल नहीं है. एक अन्य सर्वेक्षण के मुताबिक देहाती इलाकों में स्कूली बच्चों को सीखने का अनुकूल माहौल नहीं मिल पाता है.
कई सरकारी स्कूलों में पर्याप्त संसाधन या सुविधाएं नहीं हैं तो कहीं न्यूनतम आवश्यक कमरे भी नहीं हैं. ग्रामीण इलाकों के कई स्कूल या तो बिना भवन के चल रहे हैं या खुले मैदान में. लगभग एक तिहाई स्कूलों में केवल एक अध्यापक ही सभी कक्षाओं को पढ़ाता है. इसके अलावा 50 फीसदी से अधिक स्कूलों में ज़रूरत के मुताबिक फर्नीचर तक नहीं है. आंकड़े बताते हैं, कक्षा आठ तक पहुंचते-पहुंचते केवल 33 फीसदी छात्र स्कूल में रह जाते हैं. इस हालत में स्कूलों की इस दशा का भी योगदान है.
ठंडे-बस्ते में डाल दिया गया शिक्षकों के विकास का मामला
पिछले 70 सालों में कई शिक्षा आयोगों ने अनके सुधारों की सिफारिश की पर अमूमन उन्हें ताक पर रख दिया गया. राष्ट्रीय अध्यापक आयोगों (1983-85) द्वारा अध्यापकों के कल्याण के लिए जो भी सुझाव दिए गए उन्हें ठंडे-बस्ते में डाल दिया गया. इन दो अध्यापक आयोगों ने शिक्षकों की गरिमा और पेशे के महत्व को बढ़ाने के लिए कई सुझाव दिए थे. पहले आयोग की आठ चुनी हुई अनुशंसाओं में से पांच का संबंध शिक्षकों के वेतन से है. दूसरे आयोग की पांच अनुशंसाओं में से चार का संबंध वेतनमान, आवास-सुविधा, चिकित्सा, अवकाश आदि से है.
प्राथमिक शिक्षक की जीवन दशाएं बिगड़ती चली जा रही है. समाज और राज्य उसकी गिनती अन्य क्षेत्रों के पेशेवर कर्मियों की तरह करने को तैयार नहीं है. प्राथमिक शिक्षक के ऊपर नौकरशाही का दबदबा बेहद चिंताजनक मुद्दा है. देश के लगभग सभी राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था लागू हो चुकी है. पंचायतों के दायरे में प्राथमिक शिक्षा देने का अधिकार भी शामिल है. इसके तहत स्कूल के विकास और शिक्षकों के कार्यों की निगरानी विद्यालय शिक्षा समिति करती है. इसके बावजूद अनेक विद्यालयों में अब तक इस समिति का गठन नहीं हो पाया है.
लगाया जाता है नॉन-एजुकेशनल कार्यों में
जिन विद्यालयों में शिक्षा समिति का गठन हुआ है, वहां उसका राजनीतिकरण हो गया है. स्थानीय नेता आपसी मतभेदों को इन्हीं समितियों के माध्यम से भुनाते हैं. समिति की बैठकों में ही धनबल, बाहुबल का प्रदर्शन किया जाता है. जब-तब उनकी राजनीतिक सभाएं होती रहती है, जिससे कक्षाएं नहीं लग पातीं. शिक्षक के ऊपर ही इन सभाओं को संपन्न कराने की जिम्मेदारी होती है. वे न चाहते हुए भी इन जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ सकते. सुविधाओं का अभाव और उनकी बदतर हालत शिक्षकों की उदासीनता का कारण है. अनेक विद्यालयों में एक ही शिक्षक पर सभी कक्षाओं को पढ़ाने की जिम्मेदारी होती है. उनके ऊपर हमेशा दुधारी तलवार लटकती रहती है. कई बार उन्हें शिक्षणेत्तर कार्यों में लगा दिया जाता है.
जनगणना हो, चुनाव हो या टीकाकरण अभियान, उन्हें जुटना पड़ता है. उनमें से कई जिलाधिकारी कार्यालय में क्लर्की करने को मजबूर हैं. जब-तब तबादला और वेतन भुगतान के लिए शिक्षाधिकारी के कार्यालय में कई-कई दिनों का चक्कर और ज्यादा परेशानी में डाल देता है. अगर वे वेतन के लिए भाग-दौड़ करते रहेंगे तो पढ़ाएगा कौन? खामियाजा आखिर में साधनहीन ग्रामीण छात्रों को ही उठाना पड़ेगा.
पाठ्यक्रम निर्धारण में अध्यापकों की भागीदारी बेहद सीमित
शिक्षा का सही अर्थ है बच्चों को अनुभवों, प्रश्नों, निरीक्षण और अनुकरण के जरिए वातावरण को जानने के लिए प्रेरित करना. हमारे यहां घरों में यह काम चार-पांच साल की उम्र तक बेहतर ढंग से होता है, लेकिन उसके बाद फिर समस्या आ जाती है. बच्चों की पीठ पर बस्ता लाद दिया जाता है. इस वजह से वे बेमन से स्कूल आते हैं और जैसे ही मौका मिलता है पलायन कर जाते हैं. इसके लिए मौजूदा पाठ्यक्रम जिम्मेदार है.
पाठ्यक्रम निर्धारण में अध्यापकों की भागीदारी बेहद सीमित है. ग्रामीण बच्चों के लिए यह नीरस और अप्रासंगिक है. इससे उनकी निजी तथा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती. पाठ्यक्रम में जिस जीवन-शैली का वर्णन होता है वह तो शहरी मध्यम वर्ग की जीवन-शैली है, जिसमें कई बार गांव के प्रति हिकारत का भाव पैदा होता है. ऐसे ही पाठ्यक्रम के चलते कई बच्चे फेल हो जाते हैं. वह उनकी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और वातावरण से मेल नहीं खाता. पाठ्यक्रम में ग्रामीण परिवेश से जुड़ी जानकारियों का अभाव है.
इसे तो समुदाय की आवश्यकताओं के आधार पर, बालकों की रुचि के अनुसार लचीला और सीखने की स्थितियों से संबंधित होना चाहिए ताकि उनकी जीवन-शैली में आमूल परिवर्तन न हो और न ही उनके जीवन की लय भंग हो. अध्यापकों को छूट देनी चाहिए कि वे स्कूल के सामाजिक, सांस्कृतिक और भौतिक परिवेश के किसी पहलू को पाठ्यक्रम के ढांचे में जोड़ सकें. इसके लिए हमें पाठ्यक्रम के प्रति अपनी अवधारणाओं को बदल कर शिक्षण की प्रगतिशील विधियों को खोजना होगा.
नहीं हुआ शिक्षा-सुधार का काम
दरअसल हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा से जुड़े मुद्दे ठीक से पहचाने नहीं जा सके हैं. पहली बार 1960 तक सबको शिक्षित करने का लक्ष्य पूरा करने की आशा की गई थी लेकिन पर्याप्त साधनों की कमी, जनसंख्या में भारी वृद्धि, लड़कियों की शिक्षा में रुकावटें, पिछड़े वर्गों के बच्चों की बहुसंख्या, लोगों की सामान्य गरीबी और माता-पिता की निरक्षरता और उदासीनता जैसी बड़ी-बड़ी दिक्कतों के कारण यह संभव न हो सका. ऐसी बात नहीं है कि शिक्षा-सुधार का काम बिलकुल ही नहीं हुआ.
कई प्रदेशों में, विशेषकर दक्षिण के प्रांतों में, जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम परवान चढ़े. विदेशी ऋण तथा अनुदान पर चलने वाले इस कार्यक्रम के तहत प्राथमिक शिक्षा में बुनियादी तब्दीली लाने की कोशिशें की गईं पर विकास के रास्ते में आने वाली तमाम कठिनाइयों पर ध्यान नहीं दिया गया. जिन परिस्थितियों में प्राथमिक शिक्षकों को काम करना पड़ता है उसकी पूरी पड़ताल नहीं की गई. शिक्षकों को सीधे इस कार्यक्रम से नहीं जोड़ा जा सका. इस मामले में अपवाद के तौर पर कुछ उदाहरण हैं जहां शिक्षक पाठ्यक्रम निर्धारण में सलाहकार का काम करते हैं.
हिंदी भाषी राज्यों की स्थिति ज्यादा खराब है. इन राज्यों में शिक्षा-व्यवस्था से जुड़े बिंदुओं को अब तक छुआ ही नहीं गया है. राजस्थान में घुमंतू जनजातियों के लिए सचल विद्यालय, बिहार में चरवाहा विद्यालय, उत्तर प्रदेश में शिक्षा मित्र योजना, मध्य प्रदेश में आश्रम स्कूल, झारखंड में पोटा प्रयोग तथा नवोदय विद्यालय आदि योजनाओं की शुरुआत तो की गई लेकिन झारखंड के पोटा प्रयोग को छोड़कर कोई भी कारगर साबित नहीं हो सकी. इस मामले में विकेंद्रीकरण का सिद्धांत बेकार साबित हुआ है. विकेंद्रीकरण ढांचे के निर्माण में शिक्षक से बढ़कर किसी और की भूमिका नहीं हो सकती थी, पर उसकी उपेक्षा की जाती रही. ध्यान रहे कि अध्यापक के विचार और उसकी अवधारणाएं शिक्षा की प्रक्रिया को सार्थक और उपयोगी बनाने में सहायक भी हो सकती है और बाधक भी.